श्री सालासर बालाजी
संक्षिप्त इतिहास एवं परिचय
सिद्धपीठ श्री मोहनदासजी महाराज की असीम भक्ति से प्रसन्न होकर स्वयं रामदूत श्री हनुमानजी ने मूर्ति रूप में संवत् 1811 विक्रमी श्रवण शुक्ला नवमी शनिवार को आसोटा में प्रकट होकर सालासर में अपने भक्त की मनोकामना पूर्ण की। सम्वत् 1815 में अपने शिष्य उदयराम जी द्वारा मंदिर बनाकर उदयरामजी व उनके वंशजों को मंदिर की सेवा सौंपकर आप जीवित समाधिस्थ हो गये।
सालासर:-
राजस्थान प्रान्त के चूरू जिला की सुजानगढ़ तहसील की पूर्वी सरहद पर स्थित एक छोटा सा कस्बा है। तात्कालिक समय में ग्राम सालासर बीकानेर राज्य के अन्तर्गत था। जहाँ पं. सुखरामजी निवास करते थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम ‘कान्ही बाई’ था जो जयपुर रियासत में ठिकाना सीकर वर्तमान में जिला सीकर के ग्राम रूल्याणी के पं. लच्छीरामजी की पुत्री थी जो 6 भाईयों में इकलौती बहिन थी। पं. सुखराम जी व कान्हीबाई से एक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम उदयराम था। उदयराम की उम्र 5 वर्ष हुई तब पं. सुखराम जी का स्वर्गवास हो गया।
पं. सुखरामजी भगवत भजन के अतिरिक्त जीविकोपार्जन हेतु कृषि करते थे। पति का निधन हो जाने के कारण अकेली कान्हीबाई पुत्र उदयराम के उचित पालन पोषण में सहयोग हेतु अपने पीहर ग्राम रूल्याणी में पं. पिता लच्छीरामजी के पास रहने चली गई। काफी समय बीतने के पश्चात् कान्हीबाई ने अपने घर व कृषि संभालने हेतु सालासर आने का निर्णय किया। पं. लच्छीरामजी ने पुत्री के इस दुःखद समय में सहयोग हेतु अपने पुत्रों में से किसी एक को कान्हीबाई के पास सालासर रहने को कहा। पं. लच्छीरामजी की संतान में सबसे छोटे पुत्र मोहन अविवाहित थे अतः गृहस्थ संबंधी जिम्मेदारी से मुक्त होने के कारण मदद हेतु अपनी बहिन के साथ सालासर आ गये।
पं. लच्छीरामजी एवं पं. सुखरामजी का परिवार धर्मपरायण व भगवतानुरागी होने के कारण मोहन को सालासर में अपनी बहिन के घर भगवत-भजन का समुचित वातावरण मिल गया। दोनों ही परिवारों के आराध्य अंजनीसुत हनुमान थे। मोहन तो बाल्य अवस्था से ही श्री हनुमानजी महाराज के अनन्य भक्त थे और वही वातावरण उन्हें बहिन के घर प्राप्त हो गया। घर पर शांत वातावरण के साथ-साथ एकान्त समय मिल जाने से मोहन अत्यधिक भक्तिरत रहने लगे। ज्यों-ज्यों समय बीतता गया त्यों-त्यों मोहन को गृहस्थ के सभी कार्यों से विरक्ति उत्पन्न होती गई तथा हनुमानजी की भक्ति में लीन रहने लगे।
एक दिन उदयराम के साथ खेत में कृषि कार्य करते समय मोहन के हाथ से बार-बार गण्डासी फेंके जाने का क्रम देखकर उदयराम ने निवेदन पूर्वक कहा, ‘मामा आपकी तबियत ठीक नहीं है तो आप थोड़ी देर के लिए लेटकर विश्राम कर लें’। मोहन ने उदयराम से कहा, ‘कोई अलौकिक शक्ति मेरे हाथ से गण्डासी छीन कर फेंक रही है तथा मुझे यह आभास करा रही है कि तू इस सांसारिक मोह चक्र में किस लिए फंस रहा है?’
उदयराम इस घटना को समझ नहीं सके तथा सारा वृतान्त माँ को बताया कान्ही बाई ने सोचा मोहन कहीं विरक्त न हो जाय अतः शीघ्रतिशीघ्र विवाह बंधन में बांध देना ही श्रेयकर है। यह सोचकर बहिन कान्ही बाई ने तुरन्त मोहन के विवाह हेतु गहने, वस्त्र आदि के लिए सस्ते में अनाज विक्रय कर समस्त आवश्यक संसाधन जुटा लिए। कान्हीबाई ने मोहन की सगाई कर दी। बीजा नामक नाई को लड़की के घर शगुन देकर भेजा जा रहा था तब मोहन ने कहा इसका जाना व्यर्थ है क्योंकि उस लड़की की मृत्यू हो गई है। कान्हीबाई ने मोहन को टोकते हुए समझाने की कोशिश की कि शुभ अवसर पर अपशगुन युक्त बात नहीं बोलते। इस पर मोहन ने कहा, ‘ इस संसार में मेरे लिए जो बड़ी है वह माँ है, हम उम्र है वह बहिन है, छोटी है वह बेटी है। फिर विवाह किससे करूं? बहिन कान्हीबाई को इसी बात का डर था कि वह विरक्त हो जायेगा। नाई सगुन लेकर लड़की के घर पहुँचा तो उसकी अर्थी निकल रही थी। वापस आकर सारी वार्ता कान्हीबाई को बता दी गई।
उपरोक्त घटना के पश्चात् सन्यास ग्रहण कर मोहन से मोहनदास बन गये। हनुमद् भजन में इतने तल्लीन हो गये कि न खाने-पीने की सुध रही और न तन की सुध रही। जंगल में कई दिनों तक समाधिस्थ हो जाते। उदयराम गांव वालों की मदद से खोजते, फिर रेत हटाकर उन्हें समाधि से जगाते, मुँह हाथ धुलाकर पानी पिलाते। अनुनय विनय कर घर लेकर आते तथा भोजन करवाते। यही उनके जीवन का क्रम बन गया। उन्हें हनुमत प्राप्ति के अतिरिक्त अन्य कोई सुध नहीं थी। हनुमत कृपा से परमहंस बन गये तथा उनकी वाणी सिद्ध हो गई। भानजा उदयराम ने घर से थोड़ी दूर स्थित अपनी कृषि भूमि महात्मा मोहनदासजी के सुपुर्द कर, उसमें मोहनदासजी को तपस्या हेतु धुणी तथा राम हनुमान कुटिया बनवा दी। जिसे मोहनदासजी ने अपनी तपस्या स्थली बनाकर अपने आराध्य की साधना करने लगे।
एक दिन मोहनदासजी ही कान्हीबाई के पास बैठ भोजन कर रहे थे कि घर के बाहर से भिक्षा के लिए ‘अलख’ की आवाज आई। मोहनदासजी ने बहिन कान्ही बाई से कहा कोई सन्त भिक्षार्थ आये है, उन्हें भिक्षा दो। जब कान्ही बाई भिक्षा लेकर बाहर आई तो वहां कोई दिखाई नहीं दिया। छोटा सा गांव था। स्वयं मोहनदासजी ने दूर-दूर तक देखापर न पदचिन्ह् नजर आये न ही कोई दृष्टिगत हुआ। तब मोहनदासजी ने कान्हीबाई से कहा, ‘स्वयं हनुमान प्रभू थे। मैं दर्शन से चूक गया।’ ठीक दो माह उसी समय पुनः अलख की आवाज आई, कान्हीबाईने आवाज पहचान ली और मोहनदासजी से कहा तू जो कह रहा था, वहीं हनुमान साधु फिर आया है यह आवाज उसकी ही है। भक्त प्रवर हनुमानजी साधु वेश में थे जिनके मुख मंडल पर दाड़ी और मूँछ तथा हाथ में सोटा। अपने भक्त मोहनदास को दर्शन देने स्वयं उनके घर आये फिर भी मोहनदास के प्रति इतना वात्सल्य भाव था कि उन्हें आते देखकर तेज गति से वापिस जाने लगे।
मोहनदासजी दौड़ते हुये अनके पीछे हो लिए तब दूर जंगल में जाकर रूके तथा सोटा उठाकर मोहन को धमकाते हुए कहा मेरी गैल छोड़, बोल तुझे क्या चाहिए? जो मांगना है मांग, तुझे प्रसन्नता से दूंगा। यह सब हनुमान प्रभु की लीला थी जिसे मोहनदासजी अच्छी तरह पहचान रहे थे। मोहनदासजी सुना अनसुना कर प्रभु के पैरों से लिपट गये और उन्होंने महावीर के पैर कसकर पकड़ लिये। मोहनदासजी ने चरणाविंद में पड़े-पड़े आर्तनाद करते हुए कहा ‘मैं जो चाहता था वो मिल गया इसके सिवा कुछ नहीं चाहिये। यदि आप वापिस घर चले तो ही मुझे विश्वास होगा कि आप मुझ पर प्रसन्न है।’ परम प्रभु हनुमान तो मोहनदासजी की अनन्य भक्ति के वशीभूत हो चुके थे भक्त की भावना के सम्मान हेतु यह सब कर रहे थे
अतः बजरंग बली ने मोहन से कहा मैं तुम्हारे साथ तब ही चल सकता हूँ यदि तुम खाण्ड युक्त खीर का भोजन करवा सको तथा अछूती शैया पर विश्राम करवा सको। बात तो केवल घर चलने की थी, पर अपने भक्त को सानिध्य देने हेतु स्वयं ही भोजन व विश्राम की शर्त रख दी। श्री हनुमानजी मोहनदास के साथ घर आये।इस तरह मोहनदास अपने आराध्य के प्रति इतने समर्पित हो गये कि एक घड़ी भी वे हनुमत प्रभु से विलग नहीं रहना चाहते थे। बार-बार हनुमानजी को साक्षात्कार करने के लिए आना पड़ रहा था। मोहनदास ने हनुमत प्रभु से प्रार्थना की कि आप को बार-बार आना पड़ता है मैं आपके दर्शन बिना नहीं रह सकता। आप बस इतनी प्रार्थना स्वीकार करें कि आप पलभर भी मुझ से दूर नहीं होंगे। श्री हनुमान प्रभु ने भक्त की प्रार्थना स्वीकार करते हुए कहा, ‘‘तथास्तु। मैं स्वयं मूर्ति स्वरूप तेरे पास सालासर रहूँगा। यह वरदान देता हूँ।’’ इस वरदान प्राप्ति के बाद मोहनदासजी हनुमत प्रतिमा की दिन रात प्रतिक्षा लगे।
एक दिन आसोटा ग्राम के जागीरदार का मोहनदासजी के दर्शनार्थ आगमन हुआ। उन्होंने महात्मा से सेवा हेतु निवेदन करने पर मोहनदासजी ने कहा आपके यहाँ मूर्तिकार है? मुझे हनुमान महाप्रभु की मूर्ति बनवाकर भिजवायें। ठाकुर ने अहोभाग्य मानकर मूर्ति अतिशीघ्र भिजवाने का विश्वास दिया। आसोटा ग्राम में एक कृषक द्वारा खेत की जुताई के दौरान उसके हल का फाल किसी वस्तु में अटक गया। कृषक ने बैलों को रोककर उस जगह की खुदाई की जिसमें हनुमानजी की सुन्दर प्रतिमा राम-लक्ष्मण कंधों पर बैठे हुई मिली। कृषक ने श्रद्धा पूर्वक सफाई कर अपनी धर्मपत्नी से कहा देखों कितनी सुन्दर मूर्ति निकली है, किसान की पत्नी भाव विभोर होकर खेजड़ी के वृक्ष के नीचे मूर्ति रखकर रोटी से बना चूरमा का भोग लगाया और ठाकुर को सूचना भेजी, ठाकुर सम्मानपूर्वक मूर्ति घर ले आये। ठाकुर को विश्राम के समय निद्रावस्था में आवाज सुनाई दी कि मैं भक्त मोहनदास के लिए प्रकट हुआ हूँ। मुझे तुरन्त सालासर पहुँचाओं। ठाकुर को मोहनदासजी से वार्ता याद आयी। उन्होंने ग्रामवासियों को समस्त वृतान्त बताया तथा मूर्ति को बैलगाड़ी में विराजमान कर ग्रामवासियों के साथ कीर्तन करते हुए सालासर के लिए रवाना हो गये।
इधर मोहनदासजी को यह सब भान हो गया वे अगवाई के लिए सालासर से रवाना हो गये मूर्ति सम्मानपूर्वक सालासर लाई गई महात्मा की धुणी के पास जाकर बैल रूके, जहाँ उसी रोज संवत् 1811 श्रावण शुक्ला नवमी शनिवार के दिन श्री बालाजी मूर्ति स्थापित करने के लिए नूर मोहम्मद व दाऊ नामक कारीगरों को बुलवाया तथा संवत् 1815 में मंदिर का निर्माण करवाया। अपने ईष्ट को साक्षात् मूर्ति के रूप में पाकर मोहनदासजी ने सेवा पूजा हेतु अपने शिष्य उदयराम को तन का चोगा पहनाकर उन्हें दीक्षा दी तत्पश्चात् चोगे को मंदिर की गद्दी के रूप में निहित कर दिया गया। श्री हनुमानजी की मूर्ति का स्वरूप दाड़ी व मूँछ युक्त कर दिया क्योंकि प्रथम दर्शन मोहनदासजी को इसी रूप में हुए थे। ज्योति प्रज्जवलित की गई जो संवत् 1811 से आज तक ज्यों कि त्यों प्रज्जवलित है। भक्त प्रवर मोहनदासजी संवत् 1850 बैशाख शुक्ला त्रयोदशी को प्रातःकाल जीवित समाधी लेकर ब्रहम् लीन हो गये। पितृपक्ष में मोहनदासजी का श्राद्ध पक्ष में श्राद्ध दिवस त्रयोदशी को मनाया जाता है। जो श्री बालाजी मंदिर का प्रमुख महोत्सव है जिसमें हजारों श्रद्धालु भाग लेते है। श्री बालाजी महाराज का प्रकाट्य दिवस श्रावण शुक्ला नवमी मंदिर का प्रमुख उत्सव है। इस उत्सव में हजारों श्रद्धालु जन भाग लेते है।इसके अलावा भाद्र मास शुक्ल पक्ष की एकादशी को‘रेवाड़ी ग्यारश’ (जलझुलनी एकादशी) के नाम से जाना जाता है। इस अवसर पर भी भव्य कार्यक्रम होता है जिसमें हजारों की संख्या में भीड़ होती है। प्रत्येक मंगलवार को पुजारी परिवार के द्वारा मंदिर परिसर में सुन्दकाण्ड का पाठ किया जाता है।