सालासर - सृजन सेवा सदन में चमड़ियां ग्रुप पुणे के द्वारा चल रही नौ दिवसीय श्रीराम कथा का समापन मंगलवार को हुआ। कथा में कथावाचक स्वामी श्रवणानंद सरस्वती महाराज ने भगवान श्रीराम के अनेक प्रसंग सुनाए।
कथावाचक ने बताया कि मनुष्य शरीर किसी पुण्य कर्म का परिपाक नहीं है, केवल और केवल परमात्मा के अनुग्रह का प्रतिफल है। प्रभु को सब अर्पित करके पाने में, स्वयं को पूर्ण समर्पित करने में इस मनुष्य जीवन का लाभ है।
एक बार जिसका हाथ भगवान श्रीराम पकड़ते हैं तो उसे कभी नहीं छोड़ते हैं चाहे जीव कितना भी पतित क्यों न हो जाये। जिस प्रकार प्रभु ने मित्र सुग्रीव के साथ निभाया है भले वह मित्रता करके, राज्य पाकर के प्रभु को भुलाकर विषय भोग में लग गया था। लखन से श्रीराम कहते हैं कि सुग्रीव को भय इतना ही दिखाना की वह मेरी शरण में आ जाये। जिस प्रकार युद्ध में हाथ ऊपर करने पर फिर गोली नहीं चलायी जा सकती वैसे ही हाथ ऊपर करके जब जीव भगवान की शरण ग्रहण करते हैं तब फिर उस पर धर्म का क़ानून नहीं चलाया जाता है, भगवान की कृपा का संविधान चलाया जाता है। एक बार भगवान की शरणमें जो आये उस पर फिर क़ानूनी करवाई नहीं, करुणा की कारवाई होगी।
अभिमान बहुत सूक्ष्म है - भगवान से भी कुछ न मांगने का अभिमान ना हो जाये। इस सजगता और चतुराई से केवट प्रभु के लौटने पर जो भी वे देना चाहें उसे स्वीकारने की बात कहते हैं। प्रभु किसी का उधार नहीं रखते हैं और जो बहुत कम देते हैं ऐसी बिमल भक्ति निष्काम केवट को देते हैं।
कथावाचक ने कहा कि जिसको प्रेम दे दिया उसके प्रेम के वश हो जाओगे भगवान संपत्ति के वश में नहीं हैं, भक्ति के वश में हैं। किसी तीर्थ में जाओ तो केवल मंदिर के दर्शन ही नहीं, किसी ‘तीर्थी’ के भी दर्शन अवश्य करें। तीर्थ में तीर्थी के दर्शन नहीं किये तो तीर्थदर्शन अधूरा है। तीर्थ निवासी संत ही तीर्थ के प्राण हैं। भारतमें जितने तीर्थ हैं उसकी उन्हें तीर्थयता तीर्थी ही प्रदान करते हैं। मंदिर में स्वरूप की महिमा सेवा से है और तीर्थ की महिमा तीर्थ में वैराग्य से रहने वाले भजन-आराधन करने वाले महापुरुषों से हैं।